दुनिया में शायद लखनऊ जैसे कुछ ही शहर हों जो वहाँ के बाशिंदों, पर्यटकों और इतिहासकारों को समान रूप से आकर्षित करने के साथ उनकी यादों में भी हमेशा ज़िन्दा रहते हों। दक्षिण एशिया में सम्भवतः लखनऊ के अतिरिक्त दिल्ली और कलकत्ता ही ऐसे शहर हैं जिन पर सबसे अधिक लिखा गया है। ध्यान देने की बात यह है कि लखनऊ पर अब तक जो कुछ भी लिखा गया वह मुख्यतः 1857 के मुक्ति संग्राम, ऐतिहासिक इमारतों और नवाब व उनकी जीवनशैली-संस्कृति पर ही केन्द्रित रहा। इस शहर का सामाजिक ताना-बाना, विभिन्न जातियाँ, धार्मिक समुदाय व पेशागत समूह, समाज के हाशिये पर रहने वाले शोषित वर्ग, दस्तकारों-कारीगरों का जीवन, लुप्त होते हुनर, प्रतीक स्थल, लखनऊ का उर्दू साहित्य व पत्रकारिता, शिया-सुन्नी तनाव व हिंसा, बम्बई की फ़िल्मी दुनिया से लखनऊ के रिश्ते, लखनऊ में बस गये दूसरे शहरों व प्रान्तों के लोग जिन्होंने शहर के समाज व संस्कृति को समृद्ध किया है और साथ में तेज़ी से बदलते लखनऊ जैसे कुछ पक्ष हैं जो पूर्व अध्येताओं व शोधकर्ताओं की उदासीनता का शिकार रहे। नवाबी दौर के प्रति यह सम्मोहन इस उदासीनता का मुख्य कारण है। प्रस्तुत अध्ययन वर्तमान के साथ उलझने, मुठभेड़ करने और संवाद करने का भी प्रयास है लेकिन ऐसा करने में अतीत के साथ सम्बन्ध को तोड़ा नहीं गया है क्योंकि यादों का पूर्ण विलोप किसी भी शहर को चरित्रविहीन बना सकता है। लेखक का यह मानना है कि आधुनिकीकरण के साथ थोड़ा अतीत मोह और कभी न मिटने वाली यादों को बना रहना चाहिए और रूपान्तरण की प्रक्रिया में लखनऊ को ‘भूली हुई यादों का शहर' बनने की इज़ाज़त भी नहीं दी जा सकती। परम्परा और आधुनिकता के बीच एक घनिष्ठतर सम्बन्ध होना ज़रूरी है।
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